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२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥ (२४४)


दोहा:-

सतगुरु से उपदेस लै छोड़ो सान औ मान।

चारौं धाम के किहे का तब फल पावो जान।

पर नारायन पास में तन तजि करो पयान।

है चौथा बैकुँठ यह अन्धे कह हम जान।४।


दोहा:-

तन मन प्रेम लगाय के तीरथ ब्रत जिन कीन।

अन्धे कह बैकुँठ गे सिंहासन आसीन।

पर स्वारथ औ दान करि गे बैकुँठ मँझार।

अन्धे कह दोनो दिसा उनकी जै जै कार।४।