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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१४६)


पद:-

गोपिन का प्रेम अगाध रहा हर दम श्री हरि का याद रहा।

नर तन उसका बरबाद रहा जिन जान्यो नहीं क्या बाद रहा।

जब तक संसारी स्वाद रहा तब ही तक दुःख बिबाद रहा।

निज को जिन माना खाद रहा सो तो साधक उसताद रहा।४।

जेहि नाम रूप उन्माद रहा निर्भय हर दम आज़ाद रहा।

लय तेज ध्यान धुनि नाद रहा अपने कुल की मरजाद रहा।

अन्धे कहैं सो हमजाद रहा सिद्धिन में फंसि जग मांद रहा।

बन शाँति दीन मन सांदि रहा वह चल बिभूति तिरपाद रहा।८।


दोहा:-

तीनि मार्ग हैं भजन के अन्धे कह सुनि लेहु।

मीन विहँग पिपीलका सतगुरु से गुनि लेहु॥

शब्द के ऊपर सुरति धरि चलि एकांत धुनि लेहु।

जियतै में सब बासना ब्रह्म अगिनि भुनि लेहु॥