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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(६२)


पद:-

बाहर सर्प चलता है टेढ़ा, बिल में सीधा जाता है।

दुष्ट नारि नर नेक न मानैं उनके मन नहि भाता है।

अन्त छोड़ि तन नर्क जात जहँ रोये नहीं सेराता है।

अन्धे कहैं सत्य यह बानी चारों युग बिख्याता है।४।


दोहा:-

जब से सृष्टी हर रची, जीव रहे चकराय।

अन्धे कह सतगुरु बिना कौन सकै निबुकाय।

जनमें बिन संसार में निजपुर सकत न जाय।

अन्धे कह सतगुरु बचन कर्म भूमि कहवाय।

सतगुरु नाम क दान दे सुमिरै तन मन लाय।

अन्धे कह मानो सही कर्म भर्म मिटि जाय।६।