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४४० ॥ श्री बाबा दिग बिजयी दास जी ॥


दोहा:-

सतगुरु बचन से प्रीति हो, पूरन सारे काम।

दिगबिजयी कह गुनै जे, तिनको करूँ प्रणाम॥


पद:-

कंठी कसि बंधो मिरदंगी।

सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानो होय शान्त बे ढंगी।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि भन भनाय ज्यों वंगी।

अमृत पिओ सुनो घट अनहद सुर मुनि हों सत संगी।

नागिन जगै लोक सब घूमै हैं कल्यान के संगी।५।

हर दम सन्मुख कृष्ण राधिका क्या झाँकी बहुरंगी।

सूरति शब्द में ऐसे लागै जैसे कोइ भिखमंगी।

कह दिगबिजयी निज पुर बैठो जियति जीति जग जंगी।

दिगबिजई कह दिगविजय, जियति करै जो कोय।

सोई वहँ पर अंटि सकै, कर्मन की गति धोय,

रघुनाथ दास सतगुरु मेरे, जो रघुनाथ का अंश।१०।

जिनकी कृपा कटाक्ष ते दुख का भयो बिध्वंस।

अवध पुरी से है मिला, सुभग बरहटा ग्राम।

द्विज कुल में मम जन्म भा, दिग विजयी है नाम।१३।