१०१ ॥ श्री रघुनाथ भक्त जी ॥
पद:-
तन मन को मेरे लूट लिया घनश्याम प्रिया दिखलाय दरश।
हर दम मम सन्मुख राजि रहे नहिं बाकी कोई भ्रात हवस।
धुनि नाम कि रोवन ह्वै निकलै औ बोलि रही सब है नस नस।
क्या ध्यान प्रकाश समाधी हो सुधि बुधि तहं नेक नहीं को कस।
सतगुरु से जानि करो सुमिरन फिर अन्त में हरिपुर जावो बस।
रघुनाथ कहै यहि के आगे सब रंग फीक गर पावो लस।६।