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२८ ॥ श्री कौंडिल्य जी ॥


दोहा:-

परा पैसन्ती मध्यमा, और बैखरी जान।१।

चारों चलत पिपीलिका, मार्ग से लीजै मान।२।

नासा ते स्वांसा चलै, तामे मारग मीन।३।

सूरति शब्द में जब पगै, चलै विहंग प्रवीन।४।


सोरठा:-

कह कौंडिल्य सुनाय श्रुतिन में बास विहंग है।

तन मन प्रेम लगाय सुमिरै सो हरि संग है।१।