७६३ ॥ श्री चीलर शाह जी ॥
जारी........
गौर वरन बावन मन भावन शूकर श्वेत बिशाल।
परस राम जी संग में राजैं नर हरि रूप कराल।
कच्छप रूप श्वेत अति चिक्कन नख पग मुख अति लाल।४०।
मच्छ रूप औ चक्र सुदर्शन प्रेम में हरि के आल।
बीच बीच में जय जय धुनि हो कोमल बचन रशाल।
अगिनि देव तहँ चंवर डुलावें साधे पवन मसाल।
श्री जल देव हिलावत पंखा छिड़कत मेंह गुलाल।
आसमान तँह फ़रश बिछायो पहरा दें जम काल।४५।
कंकालिन औ डाइन चुड़यल वीर बजावत गाल।
भूत पिशाच प्रेत औ जोगिन फंसिगे प्रेम के जाल।
पृथ्वी जी तँह कन्द मूल फल फूल मिठाई टाल।
सरिता बन गिरि सागर तन धरि जल झारी लिहे आल।
समय दिशा ठाढ़े तन धारे साधे कर रुमाल।५०।
दिन तिथि मास मुहूर्त रास ग्रह ताम्बूलन लिहे थाल।
पीक दान लिहे मृत्यु औ माया धारे रूप बिशाल।
देश शहर पुर धाम ग्राम सब बने खड़े कुतवाल।
खंड भुवन औ द्वीप लोक सब स्वागत करते आल।
शेष छकैं छवि दुई सहस्त्र दृग मुख सहसौ पट डाल।५५।
दुइ सहस्त्र जिह्वा आनन में सटि गईं सांस न बाल।
देब बधू बहु आरति साजे प्रतिमा सम नहिं हाल।
जड़ समाधि लय ध्यान छूटिगो योगी भे मतवाल।
शब्द बांसुरी का तन साल्यो अन्तर ध्यान कि चाल।
आय के अद्भुत लीला निरखैं भूले जोग के ख्याल।६०।
देव गनन के बाहन सब तँह लखि छवि भूले चाल।
कृमि पतंग जल चर सब मोहैं बनि बैठे जिमि नाल।
काम क्रोध मद लोभ मोह संग बने खड़े चुप बाल।
दम्भ पाखण्ड चाह औ चिन्ता कपट औ झूठ मलाल।
प्रेम में गद गद निरखैं एक टक सब के तन मन ढाल।६५।
छबि श्रृंगार छटा शुभ सुख तँह लखि लखि करत उछाल।
शान्ति शील सन्तोष दीनता श्रद्धा भई निहाल।
सत्य धर्म दाया गुण जप तप ध्यान ज्ञान बेहाल।
जोग बिराग विवेक अनुरागौ मुक्ति भक्ति मन साल।
राग रागिनी ताल ग्राम स्वर तान के संग सम आल।७०।
बेद शास्त्र उपनिषद संहिता औ पुराण मतवाल।
राम भरत औ लखन शत्रुहन जनक सुता किरपाल।
सब बैठे तँह लीला निरखै आप में आप निहाल।
दिब्य कोट तँह गोल चमक अति लागे हीरा लाल।
फाटक चारि चहूँ दिशि लागे अहि मनि गज मनि आल।७५।
कृष्ण तहाँ यह कौतुक कीन्हा प्रगटे अगनित माल।
राधे जी तहँ अमित रूप धरि सब के गलेन में डाल।
अन्तर ध्यान भये सब देखा कहँ लगि कहूँ हवाल।
सुमिरन करै लखै सो प्राणी तजि के सकल बवाल।
दिब्य खेल निशि बासर होते नाना भाँति बिशाल।७०।
देखैं हरि के भक्त नित्य प्रति तन मन प्रेम में आल।
शब्द पै सूरति जौन लगावै सो कछु जाने हाल।
बिन सतगुरु के मिलै न मारग कितनो कीजै ख्याल।
मकसूमा कहैं हरि को सुमिरो तब कटिहैं भव जाल।७४।
दोहा:-
स्वामी रामानन्द जी दीन्ह्यों भेद बताय।
धुनी उठत है नाम की रोम रोम ते भाय।१।
नयनन सन्मुख रहत नित षट झाँकी सुखदाय।
राम सिया मोहन प्रिया रमा बिष्णु छवि छाय।२।
ध्यान समाधि प्रकाश हो सुर मुनि खेलैं संग।
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