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७३२ ॥ श्री मुहब्बत शाह जी ॥


पद:-

सुरति को शब्द पर धर कर के जे जन ख्याल करते हैं।

राम सीता रहैं सन्मुख सदा झाँकी वो लखते हैं।

ध्यान धुनि नूर लय पाकर मगन तन मन ते हंसते हैं।

बजै अनहद मधुर तन में श्रवण सुनि धुनि को छकते हैं।

देव मुनि दर्श दें बैठैं बिहंसि हरि यश उचरते हैं।५।

बिना मुरशिद के इस पथ पर न कोई जीव परते हैं।

शान्ति सन्तोष सत्य व्रत दीनता उर जो धरते हैं।

क्षमा औ शील की मूरति बचन ते फूल झरते हैं।

जाप अजपा जपै हर दम जीभ कर कछु न हिलते हैं।

अजब हरि की है यह लीला पास ही हैं न मिलते हैं।१०।

ओट तिल के खड़ा पर्वत शिष्य बनि पार परते हैं।

चक्र षट होंय जब बेधन जगै नागिन संभरते हैं।

चन्द्र औ सूर्य्य सुखमन हों कमल तब सात खिलते हैं।

चित्राणी बज्रणी लखि के ब्रह्म नाड़ी में चलते हैं।

शुकुल रंग धूम सम भासै शब्द रं धुनि में मिलते हैं।१५।

नाम निर्गुण ये है हरि का देव मुनि इसको चखते हैं।

हर जगह व्याप्त है प्यारा रोम प्रति रोम रटते हैं।

नाम औ रूप की महिमा अकथ कहि शेष थकते हैं।

करै हासिल वो इस पद को जो हिम्मत को न हरते हैं।

बसर तन पाय करु सुमिरन मुहब्बत शाह कहते हैं।२०।