६८८ ॥ श्री गनी मियां जी ॥
पद:-
करो सतगुरु लखो अलखै ध्यान धुनि नूर लय होवै।
सुनो अनहद चखौ अमृत बासनाओं की कै होवै।
मिलैं सुर मुनि देंय आशिष न मन में नेक भय होवै।
जगै नागिन चलैं चक्कर कमल सातौं भि तै होवैं।
हर समय श्याम श्यामा की सामने झांकी बै होवैं।५।
यह धन दीजै गरीबों को न चुकिहै और शै होवै।
करो भोजन सतौगुण का तो गिरने का न भय होवै।
गनी कह अन्त निजपुर लो आने जाने की छै होवै।८।
दोहा:-
मन दुशमन काबू करो गनी कहैं दुख जाय।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि रूप सामने छाय।१।
सतगुरु से जप भेद लो सब पदार्थ है पास।
गनी कहैं नहिं अंत चल ह्वै हौ सत्यनाश।२।