५९४ ॥ श्री नुकीली जान जी ॥
पद:-
लखि लखि हम तो हर्षित होतीं भगवान आप की क्या माया।
कहीं शिर ही के होते दर्शन कहिं दुई भुज आठ चार आया।
कहिं सौ औ सहस भुजा धारे कहिं अगणित भुज करि दिखलाया।
कहिं नूरै नूर देखाय पड़ै कहिं रूप रंग कछु नहिं पाया।
कहिं अनहद बाजा बाजि रहे कहिं लागि सभा आनन्द छाया।५।
कहिं मुरली कर में राजि रही कहिं धनुष बान कर चमकाया।
कहिं शंख चक्र गदा पद्म लिये कहिं नैन बन्द करि मुसक्याया।
कहिं नाचि रहे कहिं गाय रहे कहिं दूध दही लूटा खाया।
कहिं दौड़ रहे कहिं कूदि रहे कहिं ग्वालन कांधे छबि छाया।
कहिं चोर बने कहिं साह बने कहिं सोय गये जो मन भाया।१०।
कहिं खेलि रहे कहिं ठेलि रहे कहिं पीटि रहे कहिं चुपवाया।
कहिं मारि रहे कहिं जारि रहे कहिं तारि रहे कहिं बंधवाया।
कहिं पठवाते कहिं बोलवाते कहिं पकड़ाते कहिं भोगवाया।
कहिं हंसवाते कहिं चिलवाते कहिं मुख मल मूत्र को भरवाया।
सतगुरु करिये जियतै तरिये तब हर दम हरि की ही दाया।
कहती है नुकीली जान सुनो धुनि ध्यान बिना सुख नहिं पाया।१६।