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५९२ ॥ श्री कटीली जान जी ॥


पद:-

अरे मन बासनाओं में परे झूठे हो क्या सहते।

हमारे संग में आकर कार्य्य निज घर का नहिं गहते।

करैं मुरशिद भजै हम तुम लखैं हरि सामने रहते।

ध्यान धुनि नूर लय पाकर रहैं निर्भय न कोई दहते।

देव मुनि आय कर भेटैं मधुर स्वर हरि का यश कहते।५।

सुनैं अनहद बजै घट में सुधा अनुपम सदा लहते।

जगत में तन रहै जब तक मान अपमान को सहते।

कटीली जान कह तन तजि चलो आना नहीं जहं ते।८।