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१८२ ॥ श्री यम पुरी जी ॥

चौपाईः- मम आवरण जाय सोइ प्राणी। भज्यौ न हरि को मति बौरानी॥

झूठ कपट पाखण्ड हंसी में। दिन खोयो जग आय इसी में॥

राति दिवस यह कीन बिचारा। परधन हरौ लखौ पर दारा॥

मदिरा मांस को सेवन कीन्हा। पशु पक्षिन को तन हति दीन्हा॥

सब जीवन को सदा सतायो। लाज हाट में बेंचि के खायो।५।

सब की निन्दा में सुख मानै। अहंकार वश चलैं उतानै॥

हरि की कथा होति जँह भाई। दूरिहि ते लखि चलैं पराई॥

बाचा दै के करैं निराशा। दया धर्म को कीन्ह्यो नाशा॥

पर दुख देखि खुशी अति होवैं। पर सुख देखि दुखी अति होवैं॥

उनको दुःख वहां अति भारी। सहि न सकत कोइ जक्त मँझारी।१०।

जो जाको होवै अधिकारी। वैसै हरि तेहि हेत सँवारी॥

पापी अधिक जवै भरि जावैं। हर दम हाय हाय चिल्लावैं॥

यम मारैं कर्मन अनुसारा। सकै न कोइ छोड़ाय को प्यारा।

हरि के नाम प्रताप ते सारा। हमहूँ सहन करैं यह भारा॥

हरि यहि खातिर मोहिं बनायो। अज्ञा शिर धरि कार्य्य उठायो॥

हमको दोष कछू नहि लागै। जो जैसो तैसे में पागै।१६।


सोरठा:-

कहैं यमपुरी सांच, सुनि के हरि सुमिरन करै।

लागि सकै नहि आँच, मम आवरनन पग धरै॥