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१८१ ॥ श्री सुलतान शाह जी ॥

चौपाईः- नौ इन्द्री साधै जो कोई। दशम के में जाय के पहुँचै सोई।

पाँच को साधि पास में जावै। चारि को साधि चम्म ह्वै जावै।

तीनि को साधि के ध्यान लगावै। एक को साधि के शूर कहावै।

पाँच तत्व को साधन करई। चारौं तन सोधन करि मरई।

कशरत सूरति शब्द कि जानै। ता को मिलिहैं ठीक ठिकानै।५।

जगत मातु पितु हर दम देखै। जिनकी लीला अगम अलेखै।

नाम कि तान एक रस जारी। रोम रोम हर ठौर से प्यारी।

ध्यान में नाना लीला निरखैं। लय में सुधि बुधि कछु नहिं परखै।८।

दोहाः- पवन रूप ते ब्रह्म तहँ तामे जाय समाय।

उतरे फिर कौतुक लखै राम ब्रह्म का भाय॥

चौपाईः- आगे हरि किरपा बढ़ जावै। कृष्ण कृपा निधि लखि सुख पावै।

फिरि वहँ से जो चलि कै जावै। अमर पुरी लखि कै हरषावै।

महा प्रकाश बरनि को पावै। अगणित भानु जहां शरमावै।

राम रूप तहं सब हैं राजत। अमित काम की उपमा लाजत।

ऊँचे सिंहासन प्रभु सोहैं। अन्तर गत माता मन मोहैं।

सतगुरु गोरख नाथ लखावा। खुलिगे पट आनंद मुद छावा।६।


सोरठा:-

शंकर जी का अंश सतगुरु गोरखनाथ जी।

कीन्ह्यो दुख बिध्वंस सन्मुख सिय रघुनाथ जी॥

चौपाईः- नागिन कमल सात षट चक्कर। जानि लीन मन से करि टक्कर।१।

मन से मेल भयो सुख पायों। सुर मुनि सबहुन दरश दिखायो।२।


दोहा:-

मन की मति स्थिर भई भयो तासु कल्यान।

कहैं शाह सुलतान यह मानो बचन प्रमान॥