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२४५ ॥ श्री ललिता जी ॥

जारी........

यह द्वैत भाव दिल से अपने हटाना चाहिये ॥११॥

तब काम सब बनैगा यह दिल में लाना चाहिये ॥१२॥

गुरुदेव जी से जाकर हरिनाम लेना चाहिये ॥१३॥

सूरति शबद लगाकर अजपा को जपना चाहिये ॥१४॥

धुनि रोम रोम जारी जो पास रहना चाहिये ॥१५॥

हरि हरदम सन्मुख रहते तन सुफल करना चाहिये ॥१६॥

मानुष का तन भजन बिन बिरथा न जाना चाहिये ॥१७॥

तन मन को मारि करि भजौ सब को सुनाना चाहिये ॥१८॥

माला कि जाप करिके फिरि पाठ करना चाहिये ॥१९॥

सत्संग संतों का करि हरि चरित सुनना चाहिये ॥२०॥

भोजन को थोड़ा करिये आलस न आना चाहिये ॥२१॥

भगवत विमुख जो बातैं कबहूँ न करना चाहिये ॥२२॥

पुत्री बहिन मातु सम पर नारि लखना चाहिये ॥२३॥

संतन की रहनि यह है जीवत ही मरना चाहिये ॥२४॥

तब मुक्ति भक्ति पावौ यह ख्याल रखना चाहिये ॥२५॥

श्री औध वासियों को धनि धनि मनाना चाहिये ॥२६॥

नित नेम प्रेम करिकै हरि गुन को गाना चाहिये ॥२७॥

साधन को सिध्द करकै फिरि ठौर रहना चाहिये ॥२८॥

जिज्ञासु कोई आवै उसको बताना चाहिये ॥२९॥

जब तक रहै जगत में यह काम करना चाहिये ॥३०॥

फिरि बैठि कै सिंहासन साकेत चलना चाहिये ॥३१॥

ललिता कि विनय सब को यह मन में लाना चाहिये ॥३२॥

सत्मार्ग ही में आयू अपनी बिताना चाहिये ॥३३॥

हरिनाम ही में तन मन हर दम रमाना चाहिये ॥३४॥


दोहा:-

श्री गुरु सेवा जो करै, तन मन प्रेम लगाय ।

मुक्ति भक्ति जियतै मिलै, हरि ढिग बैठै जाय ॥१॥

आप मिटावै दीन ह्वै, तब होवै निष्काम ।

सूरति शब्द में तब लगै, धुनि हो आठो याम ॥२॥

अनहद बाजा बजत है, धुनि सुनि लागे कान ।

चरित विचित्र देखात है, उन्मुनि का है ध्यान ॥३॥

मन सूरति में लय भयौ, पहुँच्यौ शून्य में जाय ।

कहन सुनन की बात नहिं, सुधि बुधि सबै भुलाय ॥४॥

रोम रोम ते नाम की धुनि, को करै बखान ।

सत्य वचन ललिता कहै, सन्मुख कृपानिधान ॥५॥

श्री गुरू सांचे मिलैं, सो पावै यह जान ।

सार वचन है मानिये, खुलि जावै असमान ॥६॥