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७४२ ॥ श्री मोती माल खां ॥

जारी........

अगणित जन्म मरत जन्मत भे तुझको कछु न बिसावै।

मम दिवान ह्वै कर फिरि अहमक नमक हराम कहावै।५।

 

कौन खता हम कीन्ह बता तू जो मोहिं नित पिटवावै।

बारम्बार देत मोहिं धोका क्या तुझको सुख आवै।

अधम निकाम बे शरम उल्लू तो को जगत बतावै।

अपनी मति स्थिर कर ले नहि अब तू बाँधा जावै।

बहुत सिधाई को फल पायेन अब सुनु सहा न जावै।१०।

 

जिस पतरी में भोजन करता उसी में छेद बनावै।

दुष्ट जनन के काम यही हैं नीक न उन्है सोहावै।

जौन बृक्ष की छाया में बैठैं वाको काटि गिरावै।

शूद्र मूंज ढोलक तिय पनहीं पशु कूटे बनि जावै।

ये गँवार बिन दण्ड न सुधरैं सुर मुनि बेद बतावैं।१५।

 

अब सतगुरु की शरनि चलत हम तो को सज़ा देवावैं।

तब तू ठीक होयगा सारे जब उलटा टँगवावैं।

राजी नामा को करवाय के तुझ से कर जोर वावैं।

तब तू भागि कहाँ को जैहै सूरति डोरि बँधावै।

देखि के रूप सुहावन हरि का प्रेम में तू पगि जावै।२०।

 

फिरि तो तू गुरु भाई बनि मम करै प्यार यश गावै।

ध्यान समाधि नूर धुनि पाकर हर दम अति हरषावै।

सब देवन से होय बतकही बरनत नहीं सेरावैं।

कुण्डलनी षट चक्र कमल सातौं लखि कै मुसक्यावै।

अद्भुत चरित नित्य प्रति होवैं देखत ही बनि आवै।२५।

 

ज्ञान गुमान सान सब भागै मुख से बोलि न जावै।

जिमि गूँगे को मीठा दीजै क्या वह स्वाद बतावै।

द्वैत भाव तब सब छुटि जैहै सब में वही देखावै।

सतगुरु बिना बनै नहिं कारज बिधि शिव शेषहु गावै।

सुर मुनि सब हरि भजन कर रहे ध्यान समाधि लगावैं।३०।

 

कहैं मुरव्वत शाह जौन कोई मानि बचन मम जावै।

ते सीधे साकेत पुरी चलि हरि ढिग बैठक पावै।३२।

 

दोहा:-

कहैं मुरव्वत शाह मोहिं, स्वामी रामानन्द।

किरपा करि उपदेश दै, दीन्ह्यों परमानन्द।१।

 

७४९ ॥ श्री शुभराती जी ।

 

पद:-

मुझे सतगुरु दया करि मिला दे सियावर।

सब असुरन को तन से भगा दे सिया बर।

करम शुभ औ अशुभ को जला दे सियाबर।

धुनी जारी रग रोवन करा दे सियाबर।

सब सुर मुनि क कीर्तन दिखादे सियाबर।५।

 

जाम कौसर क प्यारे पिला दे सियाबर।

छटा अपनी मम सन्मुख में छा दे सियाबर।

शुभराती को निजपुर पठा दे सियाबर।८।

 

७५० ॥ श्री बकरीदी जी ।

 

पद:-

घनश्याम राधे जी जरा हम पर दया करो।

कुञ्जन में कर गले में छोड़ घूमते ते ज्यों।

वैसे मुझे कभी कभी दर्शन दिया करो।

करते थे रास जैसे सखा सखिन को लिये।

वैसे कभी इस दीन को दिखला दिया करो।५।

 

जैसे कि बाँसुरी बजा सब को लुभाते थे।

वैसे ही मुझ को भी कभी सुना दिया करो।

माखन दही व दूध लूटत थे बृज गलिन।

जारी........