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४६८ ॥ अनन्त श्री स्वामी सतगुरु नागा ॥(३)

 

जब तक नैन श्रवन नहिं खुलते तब तक किसी को मत उपदेश।

नागा राम दास कहैं भक्तों मिले न अपना देश॥

सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानो दीन बनो हो पेश।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि निरखौ रूप हमेश॥

सुर मुनि आय आय दें,आशिष चन्दन मस्तक लेश।

अनहद सुनो पिओ घट अमृत सुफ़ल होंय नर भेष॥

जियतै मुक्ति भक्ति अब मिलगै रह्यो न बाकी रेश।

निरभय औ निरबैर गयो होय चलै न एकौ केश॥

काम क्रोध मद लोभ मोह औ माया सकै न गेश।

अऩ्त त्यागि तन निज पुर बैठो छूटी भव की ठेश।५।