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३०७ ॥ श्री अन्धे शाह जी ॥

(२७,२८ दिसम्बर, रात दो बजे लिखवाया)

 

पद:-

राम नाम अवलम्ब मिला जेहि खुलिगे आँखी कान।

नाम की धुनि परकाश दसा लै सून्य समाधी जान।

नागिनि जगी चक्र षट् बेधे सातौं कमल फुलान।

उड़ै तरंग मस्त भा तन मन रोम रोम पुलकान।४।

 

सुर मुनि मिलैं सुनै घट अनहद अमृत का करै पान।

राम सिया सन्मुख में राजैं मन्द मन्द मुसक्यान।

छबि श्रृंगार छटा को बरनै सारद शेष चुपान।

अन्धे कहैं अन्त साकेतै जावै बैठि विमान।८।

 

दोहा:-

वाक्य ज्ञान को छोड़ि कै नीच बनै जो कोय।

सांति दीनता जाय मिलि छूटि जाय तब दोय।१।

 

हर हनुमान ने दीन्ह मोहिं राम नाम का दान।

अंधे कह सुमिरन किया जियतै भा कल्यान।२।