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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल १७॥ (विस्तृत)


२४६. पद: वजहन जग में आय के, करिये ना तुम मान। 
दया धर्म ना छोड़िये, जब तक घट में प्रान॥ 

२४७. पद: राम दास नागा कहैं, होय भक्त सो पास। 
दया धर्म छोड़े नहीं, जब तक तन में सांस॥ 

२४८. पद: ईमान जिसका हो मुसल्लम, 
रहम जीवों पर सदा। 
अल्लाह का प्यारा जानिये, 
तन मन से सच्चा वह गदा (भक्त)॥ 

२४९. बहराइच में एक धोबी है, उसे गंगा जी से वार्ता होती है। हमारे तुम्हारे लिये गंगाजल है, उनके लिये वह स्वरूप हैं। 

२५०. चमार, पासी, मेहतर भगवान के अनन्य भक्त हो गये। आज हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुल में जन्में, बढ़िया खाना, बढ़िया पहनना जाना और कुछ नहीं। अहंकार रावण, कपट मारीच, यह घुसे हैं। कुछ करने नहीं देते। मान अपमान जीव को खाये लेते हैं। 

२५१. भाव होना चाहिये। सब दिखाऊ काम करते हैं। यह सब आडम्बर भगवान को पसन्द नहीं। 

२५२. (जो) सबका भला चाहै, वही मनुष्य है। 

२५३. सिद्धियां नरक का घर हैं। 

२५४. देवी देवता को पकरे तब धुकुर-पुकुर न करै - (वे) सहायता तब नहीं करते। 

२५५. १) लट संग: व्यर्थ वाद - विवाद। 
२) बद संग: दुनियावी संग 
३) सत्संग: गुरू-सद्गुरू का संग। ध्यान में बैठे हो, देवी देवता प्रकट हों। 
४) महासत्संग: ध्यान में प्रभु से वार्तालाप। 

२५६. महाराज कहे कि हमसे ज्यादा हमारी मेहतरानी को मानो, सेवा करो। घर वालों की सेवा सभी करते हैं, जब दूसरों की सेवा करोगे, तब भगवान खुश रहेंगे। भजन यही कि सह लो पर दूसरों को कष्ट न दो। 

२५७. सच्चा प्रण भगवान निभा देते हैं। 

२५८. साधक को सतोगुणी भोजन न मिले, लंघन (उपवास) कर ले। 

२५९. सारे विश्व की अमीरी आ जाय, मस्त मत होना। 
सारे विश्व की गरीबी आ जाय, तो दुखी मत होना॥ 

२६०. हमने सब जाति की सेवा की है, मल मूत्र धोया है।