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॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल १८ ॥ (विस्तृत)


२६१. भजन घर में ही होता है। घर छोड़े नहीं होता भजन। बड़े-बड़े अफसर करते हैं। प्रेम की जरूरत है। दिली शौक होने पर भगवान शक्ति देते हैं। 

२६२. वाक्य ज्ञान, मुरदा ज्ञान से काम नहीं चलता। १०० जूता कोई मारे क्रोध न आये, तब भजन होगा। कोई लागत थोड़ै, सब मान बड़ाई में परे रहते हैं। लिक्चर, व्याख्यान रहता है व्यर्थ, सब वाह-वाह में परे हैं। 

२६३. २५० सिद्ध अरब में हैं। उन पर कोई थूकता, कोई मूतता, बोलते नहीं। जब उठते हैं, धो देते हैं। सहन-शक्ति के बिना भजन से लाभ नहीं। सब से तुच्छ अपने को मान ले। बिना मान अपमान फूकै कुछ न होगा। 

२६४. दो नदी हैं - सुख की, दुख की। सुख की दुर्लभ प्रेम की नदी, ऐसी कि सब कूड़ा कचरा बहा देती है। 

२६५. गीता रामायण कण्ठ (रटे) हैं पर मन काबू नहीं तो क्या फायदा? 

२६६. किसी भक्त स्त्री से कहा: 
हम तो दो किताब पढ़े हैं, तुम तो दसवां में हो। और लड़का, लड़की, तुम्हारी उमर, रायज़ादा की जोड़ी जाय, तो हम बहुत छोटे निकलेंगे। हर हालत में तुम्हीं बड़ी निकलोगी, हम छोटे हैं। हमें तुम दरसन देने आती हौ। तुम पर भगवान की दया है, इतना परिवार पालन करती हो। 

२६७. अरसा हुआ, एक भक्त (संत) ने प्रकट होकर बताया था - वही फिर आज बताया है (२४.४.७६, २:३० शाम)। रंग रूप सब मास्टर ने लिख लिया है। 
कहैं जैसे सुनो वैसी। 
छिमा बिन साधुता कैसी॥ 

२६८. पद: भक्तों छिमा तुम्हारी नारी। 
हर दम रमन करौ ताके संग, तब होवै सुख भारी॥ 
हो संतोष पुत्र जब पैदा, जियतै देवै तारी॥ 

२६९. पद: अपढ़ पढ़ा कछु मैं नहिं, 
भक्तों मानों बात हमार। 
अजर अमर सियाराम ने, 
किना (किन्हा) प्रेम में मत-वार॥ 

२७०. पद: सियाराम की करौ मुलाजिमति, जियति होहु भव पार। 
नाम कि धुनि, परकास, समाधी हरदम हो दीदार॥ 
सुर-सक्ति सब दर्शन देवैं, बोलें जै जै कार। 
कहैं मुलाजिम साह इसी से, भयो मोर निस्तार॥ 

२७१. मंत्र जप से, पाठ-पूजन से, कितने अजर-अमर हो गये हैं। जिसकी सुरति अपने इष्ट में लग जाय, वही अपने इष्ट का हो जाता है। सब रूप धारन कर लेता है। जैसे भगवान सब जगह मौजूद हैं वैसे ही वह हर जगह अपने को देखता है। 

२७२. गोस्वामी जी ने लिखा है:-


चौ०: ईश्वर अंश जीव अविनासी। 
चेतन अमल सहज सुख रासी॥ 
अर्थ:-
चेत कर अमल यानि साधन करि लिया - पट खुल 
गये। मरना पैदा होना छूट गया। 

२७३. कबीर जी ने कहा है:-

दोहा:-
मरना-मरना सब कहैं, मरना लखै न कोय। 
ऐसा मरना जो मरै, बहुरि मरन नहिं होय॥ 

२७४. सरनि (शरण), मरनि, तरनि, सब जियतै हो जाता है। सारा खेल मन का है। 

२७५. खाली माला फेरने से नहीं भगवान प्रसन्न होते। चीटीं आँटा -चिड़ियों को चावल खिलाने से वैकुण्ठ होता है। सड़क पर खँूटी लगी हो निकाल दो। वहाँ सब लिखा जाता है। बिना दया भजन से लाभ न होगा।