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॥ अथ जय माल वर्णन॥

 

जारी........

हमैं कछु इच्छा नहिं सुखदाय। दरश करि आपु की अति सुख पाय॥

चरन दोउ स्वामिन के परि धाय। लेंय सामान को तुरत उठाय॥

उड़ैं लै कटक में पहुँचैं जाय। धरैं सब वस्तु प्रभु ढिग आय।३०००।

 

परैं चरनन में तन उमगाय। उठाय के प्रभु उर लेंय लगाय॥

लखन हँसि लपटि मिलैं हर्षाय। कहैं सब हाल अवध का गाय॥

सुनैं सब कटक संग सुखदाय। लखन तन मन ते अति हर्षाय॥

देंय सिंहासन तहँ पधराय। छत्र तेहि ऊपर देंय लगाय॥

जड़े नग सुघर उजेरिया छाय। देंय सामान सबै धरि भाय।३०१०।

 

देखि कै सब के हिय हर्षाय। बिभिषण ते प्रभु कहैं सुनाय॥

करो अस्नान उदधि में जाय। जाँय अस्नान करैं हर्षाय॥

लौटि कर आवैं प्रभु ढिग धाय। कहैं प्रभु सुनो बिभीषण राय॥

बैठिये सिंहासन पर आय। बिभीषण कहैं सुनो सुखदाय॥

आपके सन्मुख अनुचित आय। कहैं प्रभु मन्द मन्द मुसक्याय।३०२०।

 

लखन हनुमान ते सैन से भाय। जानि यह लखन पवन सुत जाँय।

पकरि कर दोउ जन लेवैं धाय। बिठावैं सिंहासन पर लाय॥

बिभीषण मन ही मन सकुचाँय। बोलि नहिं सकैं करैं का भाय।

लखन हनुमान कृत्य करवाय। कहैं धुनि वेद मधुर स्वर गाय॥

प्रभु दाहिन पग अपन उठाय। करैं औंठा से शिर तिलकाय।३०३०।

 

धुनी तहँ जय जय कार कि भाय। करैं कपि ऋक्ष हिय हर्षाय॥

उतरि सिंहासन ते हर्षाय। बिभीषण प्रभु चरनन परि जाँय॥

उठाय के उर में लेंय लगाय। मिलैं फिर सब से मन हर्षाय॥

बटै परसाद सबै कोइ पाय। बचै सो उदधि में देंय छोड़ाय॥

सुमन बरसावैं सुर मुनि जाय। कहैं धुनि धन्य बिभीषण राय।३०४०।

 

कहैं रघुनाथ लखन सुखदाय। बिभीषण के गृह हनुमत जाँय॥

बिभीषण की माता हरषाँय। कहैं सब उनसे हाल सुनाय॥

छत्र सिंहासन लेते जाँय। बिभीषण के गृह देंय धराय॥

सुनैं हनुमान चलैं हर्षाय। छत्र सिंहासन लेंय उठाय॥

उड़ैं लै पहुँचि लँक में जाँय। बिभीषण के गृह देंय धराय।३०५०।

 

कहैं दरबानिन ते हर्षाय। सिंहासन छत्र देव भितराय॥

बिभीषण की माता से जाय। संदेशा सब कह दें हर्षाय॥

राज प्रभु दीन्ह उन्हैं हर्षाय। करैं आनन्द राम गुण गाय॥

सुनत ही दरबानी दोउ धाय। सिंहासन छत्र को लेंय उठाय॥

पहुँचि जाँय भवन मध्य हर्षाय। कहैं सब हाल मातु से गाय।३०६०।

 

देंय सिंहासन छत्र धराय। बिभीषण की माता हुलसाय॥

आय हनुमान को शीश नवाय। बैठि जाँय दोउ कर जोरि के भाय॥

कहैं हनुमान बचन सुखदाय। बिभीषण अभय भये अब माय॥

देर अब नहीं दशानन राय। लंक तजि बिष्णु पुरी को जाँय॥

नीति से राज्य बिभीषण आय। करैं सब प्रजा सुखी ह्वै जाय।३०७०।

 

बिभीषण मातु कहैं हर्षाय। प्रभु सम को समरथ सुखदाय॥

अंश प्रभु का यह जीव कहाय। परय्यौ माया में चक्कर खाय॥

बासना नाना बिधि की आय। प्रगट होवै औ फेरि बिलाय॥

नाचता मन तिन बीच सदाय। इसी में आयू जात सेराय॥

पाँच ठग तन में बसिगे आय। लेंय ठगि धन सब द्वैत लगाय।३०८०।

 

द्वैत जादू यह अति दुःखदाय। दीनता मंत्र बिना नहिं जाय॥

दीनता की सेना सुखदाय। शान्ति औ शील सत्यता आय॥

छिमा सरधा दाया हर्षाय। धर्म संतोष प्रेम लपटाय॥

नाम अधिकारी तब कहवाय। धुनी तब खुलै नाम की आय॥

रूप सिया राम जगत सुखदाय। रहैं सन्मुख तब मन हर्षाय॥३०९०।

जारी........