२७३ ॥ श्री कबीर दास जी ॥
जारी........
पुरुष रोम सम एक न होई ऐसा पुरुष दीदारा है।
आगे अलख लोक है भाई अलख पुरुष की तहँ ठकुराई,
अरबन सूर रोम सम नाहीं ऐसा अलख निहारा है।
तापर अगम महल एक साजा अगम पुरुष ताही को राजा,
खरबन सूर रोम एक लाजा ऐसा अगम अपारा है।
ता पर अकह लोक है भाई पुरुष अनामी तहाँ रहाई,
जो पहुँचे जानेगा वोही कहन सुनन से न्यारा है।
काया भेद किया निर्बारा यह सब रचना पिण्ड मंझारा,
माया अविगत जाल पसारा सो कारीगर भारा है।३०।
आदि माया कीन्हीं चतुराई झूठी बाज़ी पिण्ड दिखाई,
अविगत रचनरची अण्ड माहीं ता का प्रतिबिंब डारा है।
शब्द विहंगम चाल हमारी कहें कबीर सतगुरु दइ तारी,
खुले कपाट शब्द झुनकारी पिण्ड अण्ड के पार सो देश हमारा है।३२।