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२७३ ॥ श्री कबीर दास जी ॥


पद:-

कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।

काम क्रोध मद लोभ बिसारो शील सन्तोष क्षमा सत धारो,

मद्य मांस मिथ्या तज डारो हो ज्ञान अश्व असवार भरम से न्यारा है॥

धोती नेती बस्ती पाओ आसन पद्म युक्ति से लाओ,

कुंभक कर रेचक करवाओ पहले मूल सुधार कारज हो सारा है॥

मूल कँवल दल चतुर बखानो क्लीँ जाप लाल रँग मानो,

देव गणेश तँह रूपा थानो ऋद्धि सिद्धि चँवर डुलारा है॥

स्वाद चक्र षट दल विस्तारो ब्रह्म सावित्री रूप निहारो,

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है॥

नाभी अष्ट कमल दल साजा, स्वेत सिंहासन बिष्णु विराजा,

हृी ँ जाप तासु मुख गाजा लक्ष्मी शिव आधारा है।५।

द्वादश कमल हृदय के माहीं, संग गौर शिव ध्यान लगाहीं,

सोऽहं शब्द तहाँ धुनि छाई गण करते जै कारा है॥

षोड़स कमल कंठ के माहीं, तेहि मध्य बसे अविद्या बाई,

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई जहँ श्रीँ नाम उच्चारा है॥

तापर कँज कमल है भाई, बक भौरा दुइ रूप लखाई,

निज मन करत तहाँ ठकुराई सो नैनन पिछवारा है॥

कमलन भेद किया निर्वारा यह सब रचना पिण्ड मंझारा,

सत्संग करि सत्गुरु सिर धारा वह सतनाम उचारा है॥

आँख कान मुख बन्द कराओ अनहद भींगा शब्द सुनाओ,

दोनों तिल एक तार मिलाओ तब देखो गुलज़ारा है।१०।

चन्द्र सूर एकै घर लाओ सुषमन सेती ध्यान लगाओ,

तिरबेनी के संग समाओ भौंर उतर चल पारा है॥

घंटा शंख सुनो धुन दोई सहस कमल दल जग-मग होई,

ता मध्य करता निरखो साईं बंक नाल धस पारा है॥

डाकिनी साकिनी बहु किलकारें जम किंकर धर्म-दूत हँकारे,

सत्तनाम सुन भागे सारे जब सतगुरु नाम उचारा है॥

गगन-मंडल बिच अमृत कुइया, गुरुमुख साधू भर भर पीया,

निगुरा प्यास मरे बिन कीया जा के हिये अंधियारा है॥

त्रिकुटी महल में विद्या सारा घनहर गरजें बजे नगारा,

लाल वर्ण सूरज उजियारा चतुर कंवल मंझार शब्द ओंकारा है।१५।

साधु सोई जो यह गढ़ लीना नौ दरवाज़े परगट कीन्हा,

दसवाँ खोल जाय जिन्ह दीन्हा जहाँ कुफल रहा मारा है॥

आगे स्वेत सुन्न है भाई मानसरोवर पैठि अन्हाई,

हंसन मिलि हंसा होइ जाई मिले जो अमी अहारा है॥

किंगरी सारंग बजे सितारा अक्षर ब्रह्म सुन्न दरबारा,

द्वादश भानु हंस उजियारा षट दल कमल मंझार शब्द ररंकारा है॥

महा सुन्न सिंध विषमी घाटी बिन सतगुरु पावे नहिं बाटी,

व्याघर सिंघ सर्प बहु काटी तहँ सहज अचिंत अपारा है॥

अष्टदल कमल पार ब्रह्म भाई दहिने द्वादश अचिंत रहाई,

बाँये दस दल सहज समाई यूँ कमलन निरवारा है।२०।

पांच ब्रह्म पांचों अण्डबीनो पांच ब्रह्म नि:अक्षर चीन्हों,

चार मुकाम गुप्त तहँ कीन्हों जा मध्य बन्दीवान पुरुष दरबारा है॥

दो पर्बत के संघ निहारो भँवर गुफा तहँ सन्त पुकारो,

हंसा करते केलि अपारो वहाँ गुरुन दरबारा है॥

सहस अठासी दीप रचाये हीरा पन्ना लाल जड़ाये,

मुरली बजत अखण्ड सदाये तहँ सोऽहं झुनकारा है।

सोऽहं हद्द तजी जब भाई सत्त लोक की हद पुनि आई।

उठत सुगन्ध महा अधिकाई जाको वार न पारा है।

षोड़श भानु हंस को रूपा बीना सत्त धुन बजे अनूपा,

हंसा करत चंवर सिर भूपा सत्त पुरुष दरबारा है।२५।

कोटिन भानु उदय जो होई एते ही पुनि चन्द्र खलोई,

जारी........