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२४१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२५७)


पद:-

अनहद बाजा कौन बजावै।

जितने बाजा रूप हैं उनके निज आवरन बजावैं।

ताल तान स्वर धुनि सम रहती भेद विलग नहिं जावै।

राग रागिनी समय समय पर आइ के नाचैं गावैं।४।

देखत सुनत बनत है भक्तौं जो मन को ठहरावै।

एक तार हरदम है बाजत यह नौबत कहवावै।

हरि दरवाज़े पहुँचै साधक रंक से राव बनावै।

अंधे कहैं शरनि सतगुरु की जो चाहै सो पावै।८।


दोहा:-

ध्यान प्रकास समाधि नाम धुनि रूप पाठ जप से दरसै।

अंधे कहैं भया मन संगी हर दम तब आनद बरसै॥


दोहा:-

मन समाइगा नाम में ताकि मृत्यु न होय।

अंधे कह सतगुरु बचन छूट गई तब दोय॥

सूरति लागी शब्द में काल न आवै पास।

अंधे कह सो जानिये भया राम का दास।२।


दोहा:-

सुमिरन ऐसा कीजिये औ न जानै कोय।

अंधे कह पट जाँय खुलि आवा गमन न होय॥

संसय तो छूटी नहीं पढ़े संसकृत जान।

अंधे कह जन्मैं मरैं मिलैं न ठीक ठेकान।२।