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२१० ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(२२६)


पद:-

समय श्वाँस तन बल धन पायो हरि सुमिरन करि लीजै जी।

ऐसा दाँव फेरि नहिं पइहौ बिरथा आयू छीजै जी।

सत्गुरु करि जप भेद जानि कै मन को काबू कीजै जी।

नाम रूप परकास समाधी होय कर्म गति मीजै जी।४।

नागिनि चक्र कमल जगि जावैं घट में अमृत पीजै जी।

अनहद सुनो देव मुनि आवैं सत्संगति नित कीजै जी।

अन्त त्यागि तन चढ़ि विमान पर निजपुर आसन लीजै जी।

अंधे कहैं छूटि जग चक्कर फेरि गर्भ नहिं भीजै जी।८।