१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(१२३)
पद:-
मन को बसि करि कितने तरिगे।
सुर मुनि कवि कोविद यहि ऊपर कितनी कविता करिगे।
चंचल चपल चलाक भगैया या संग कितने गिरिगे।
सतगुरु करि जिन पकड़ब जाना संगै लीन निसरिगे।
कितने तनमैता अस कीनी आप को आप बिसरिगे।
अन्धे कहैं भये हैं ह्वै हैं धनि धनि जौन सपरिगे।६।