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१ ॥ श्री अंधे शाह जी ॥(३६)


पद:-

अविद्या आलस की नारी।

अगणित रूप धरे है घूमत मन की मति मारी।

सतगुरु करि सुमिरन में लागो द्वैत देव फारी।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि रं रं रं जारी।

सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि निरखौ सुख भारी।

हर दम सन्मुख राज रहे हैं अद्भुद छबि प्यारी।६।

सुर मुनि मिलैं पियौ घट अमृत अनहद गुमकारी।

कमल चक्र शिव शक्ती जागै बिधि गति दे टारी।

जियतै मुक्ति भक्ति मिलि जावै दोउ दिसि बलिहारी।

समय स्वाँस तन दुर्लभ पायो चेतौ नर नारी।

अंधे कहैं अन्त पछितैहौ नर्क में हो ख्वारी।

यही भजन मोको बतलायो हनुमत त्रिपुरारी।१२।