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३८२ ॥ श्री सुन्दर माई जी ॥


पद:-

हरि अब दीजै मोरि मजूरी।

सुमिरन में जैसे मैं बैठूँ मन भागत ले दूरी।

या से बिकल रहौं निशि बासर नेक न होंत सबूरी।

या के संग रहत बहु डाकू लूट मिलाइन धूरी।

तुम बिन नाथ करै को पालन होय बिनय यह पूरी।५।

नाम में तन्मयता ही जावै जौन सजीवन मूरी।

सुन्दर कहै छूट तब जावै जियतै भव दुख छूरी।

अन्त त्यागि तन निज पुर राजौं होय न कबहूँ सूरी।८।