३७९ ॥ श्री गाज़ी मियां जी ॥ (२८)
पद:-
प्रेम भाव करि नाम न सुमिरै ठगवा घऱ में घूमैं।
मन उन्हीं के संग में रहता हँसै औ चहुँ दिसि झूमै।
बज्र की डोरि से जीव को बाँधि कहै बड़ा यह सूमै।
माया कहै लटि लेव या को सुनत सुकृत सब तूमै।
लूटि कूटि कै निज घर धीर लैं करैं सबै तब घूमैं।५।
बोलो दें इनाम रोयां का एक एक सब रूमै।
फेरि आय सब करैं मसखरी रहि रहि के मुख चूमैं।
गाज़ी मियाँ कहैं तन छूटै निज पुर जम नित गूमैं।८।
शेर:-
गाज़ी कहैं राजी हरी जब नाम धुनि को जानिये।
तब हर समै सुख शान्ति है यह बैन मेरे मानिये॥