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३७५ ॥ श्री बाबा हरि चरन दास जी ॥ (२)

जानत भक्त जगत का खाता।

सतगुरु करि तन मन को तायो सब दृष्टि में आता।

नाम अमल उतरत नहिं नेकौ एक तार भन्नाता।

ध्यान प्रकाश समाधी होवै जहाँ रूप नहिं बाता।

अनहद सुनै पियै घट अमृत सुर मुनि संघ बतलाता।५।

नागिनि जगै चक्र षट घूमैं कमल खिलैं क्या साता।

सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि सन्मुख लखि मुसक्याता।

कह हरि चरन छोड़ि तन निज पुर चढ़ि सिंहासन जाता।८।