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३३८॥ श्री अपाहिज शाह जी॥


पद:-

सतगुरु करि सुमिरन बिधि पाई। सो जियतै सब लेय कमाई।

ध्यान प्रकाश समाधि में जाई। रोम रोम धुनि नाम सुनाई।

अनहद नाद कि सुनै बधाई। पियै अमी रस आह बुताई।

सुर मुनि मिलैं लिपटि मुसक्याई। नागिनि जागि सब लोक दिखाई।

षट चक्कर बेधन हों भाई। सातौं कमल खिलैं सुखदाई।५।

राम सिया सब के पितु माई। सन्मुख देंय छटा छबि छाई।

कहैं अपाहिज दीन बताई। यहि बिधि बिन निज पुर को आई।

का नंगे का पहिने भाई। प्रेम बिना नहिं हो अस्थाई।८।