साईट में खोजें

३१० ॥ श्री घूमन शाह जी ॥(२)

तन मन है मुअत्तर खुशबू से फुलवारी चहुँ दिशि खूब घनी।

हैं क्यारी क्यारी चमन बने पत्थर पचरंग जड़ी है मनी।

क्या हेम के गमला भाँति भाँति बाहेर हीरन की लगी कनी।

हैं पांति पांति रक्खे तहँ पर सुर मुनि घूमैं संग सहस फनी।

हम तो टहलैं नित एक दफ़े है मंगलमय क्या दिब्य बनी।५।

सतगुरु करि खोलै चश्म गोश बनि जावै जियतै खूब धनी।

धुनि ध्यान प्रकाश समाधि मिलै सारे असुरन को देय हनी।

सिय राम श्याम प्रिय सन्मुख हों सिंहासन आसन छत्र तनी।

तन छोड़ि वतन में हो दाखिल फिर गर्भ में काहे आय छनी।

चेतो नर नारि करो सुमिरन सब के हित सांचे बैन भनी।१०।

नाहीं तो अन्त में हो मुश्किल यम दूतन ते जब जंग ठनी।

लखिकै मुख से नहिं बोल कढ़ैं हैं रूप भयानक संघ अनी।१२।