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१४३ ॥ श्री जदुनाथ कुंवरि जी ॥


पद:-

विश्वास सतगुरु बचन पर जेहि उसकि बिगड़ी बन गई।

फ़ौज असुरन की जो तन में थी रुई सम धुन गई।

ध्यान धुनि परकाश लय जियतै में करतल ह्वै गई।

राम सीता की छटा सन्मुख में हर दम खिल गई।

देव मुनि नित दर्श दें कर प्रेम सब को हिल गई।

सूरति शबद के मार्ग का उपदेश जग में कर गई।६।

तुख़्म परमारथ क प्यारी बहुत सा भरि धर गई।

दोनों जहां उसके बने आनन्द का यश भर गई।

अन्त तन तजि रूप नर का चतुर भुज ह्वै चल गई।

निज रंग रूप बनाय प्रभु दीन्ह्यो सिंहासन सुधि गई।

मौन ह्वै बैठी न इच्छा कोई बाकी रह गई।

सूरति लगी मूरति में हरि की एकता भई मिल गई।१२।