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१३२ ॥ श्री अलताफ़ हुसेन जी ॥


शेर:-

हू बहू वह रू बरू तुम प्रेम में ग़रकाब हो।

परकाश ध्यान समाधि धुनि सुनि पटिक तीनो ताप हो।

मुरशिद करो पावो पता बस आप ही में आप हो।

अलताफ़ कह हर दम भजो सिय राम माई बाप हो।४।


पद:-

उठा गोबरधन को नख पै हरि ने बिहंसि के ग्वालों को फिर पुकारा।

चलो सब दौरो यहां तो आवो लगावो हाली इस में सहारा।

नहीं तो गिरने में देर नाहीं कहां तलक रोकूँगा मैं भारा।

ये बैन सुनकरके ग्वाल दौड़े पहुँचिगे फौरन हुई न बारा।

लकुटियां निज निज लगाईं सब ने खड़े हुये बांधि कर कतारा।५।

कहैं प्रभू अब गिरैगा कैसे तुम्हारे ऊपर ज़रा इशारा।

कहैं कन्हैया तुम्हीं सबों की बदौलत हलका हुआ यह पारा।

बचाया बृज भर को आय तुम सब नहीं तो बिगड़ा था खेल सारा।

क्या मध्य में श्याम की है शोभा बरनि सकै को फणीस हारा।

सात दिन तक खड़े रहे सब किया किसी ने न कुछ भि चारा।१०।

कृपा से हरि की ऐसा बढ़ा बल किसी ने नेकौं कदम न टारा।

प्रलय के मेघा जुटै वहां पर सुदर्शन गिरि पर जलावै धारा।

सुरेश आकर चरण गहै जब क्षमा हो भगवन औगुन हमारा।

दया के सागर दया के स्वामी दयाल होकर कर सिर पै धारा।

श्री कृष्ण बोले हे गोपौ भाई हटा के लकुटी करो किनारा।१५।

यह सुनकर सब चट निकल भे बाहिर मुरारि महि पर गोबरधन डारा।

फूलौं कि बरखा सुर मुनि ने कीन्हीं बजाया ढफ़ ढोल औ नगारा।

उठा के कर सब यह बोलैं बानी गिरधारी जी की हो जै जै कारा।

दो गज उंचाई बृज भर में फूलों की मानो चुन चुन सब ने पसारा।

तरंगै उड़ती तरह तरह की ये घट में हमने किया दिदारा।२०।

करो तो मुरशिद लखो फिर लीला दिखावैं क्या क्या मनोहर प्यारा।

धुनि ध्यान नूर लै हो जहां घट लजावैं अगणित रवि चन्द्र तारा।

रिहाई होगी जहां से उनकी जे जान लें क्या सखुन उचारा।

अलताफ़ कहता भजो निरंतर नहीं तो दोज़ख़ धरा बिचारा।२४।

शेर: आह के नारे भरोगे हर समय दोज़ख में चल।

अलताफ़ कहता है वहां पर एक पल मिलती न कल॥