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८५५ ॥ श्री घाघ जी ॥


पद:-

पुरुष संग पुरुष जे भकुवा घाघ कह भोग करते हैं।

वही फिर तीस कल्पों तक नर्क में जाय सड़ते हैं है।

लोह की सींक लाली करके जम इन्द्रिन में भरते हैं।

हाय रे हाय चिल्लावैं दृगन से आँसू चलते हैं।

उठैं बैठैं गिरैं लोटैं सहैं दुख पर न मरते हैं।५।

भोग हित क्या बने तन हैं कटैं औ फेरि जुरते हैं।

कहीं लिक्खा नहीं ऐसा शास्त्र पढ़ते औ सुनते हैं।

बने पापिष्ट भीतर से ऊपरी ज्ञान कथते हैं।

बसन मीठा बहुत बढ़िया शिशुन दै बस में करते हैं।

सयाने होंय जब बालक उसी मारग में रमते हैं।१०।

बुरी संगत क फल यह है दिनो दिन नीचे गिरते हैं।

अगर कोई जो समुझावै तो फिर उस से अकड़ते हैं।

पांच चोरों के संगी बन रात दिन जूते सहते हैं।

कहां से सुख मिलै उनको जे सतगुरु पग न गहते हैं।

चेत करके करैं सुमिरन तो फिर जलदी संभरते हैं।

जियति में प्राप्ति सब होवै अन्त हरि पुर ठहरते हैं।१६।