८२० ॥ श्री मूला बाई जी ॥
दोहा:-
बहिनों कहां लिखा बतलावो अपने कर्म धर्म को खोना।
भूषण बसन औ तन चिकनाउब शीरीं भरि भरि दोना।
कम कीमति के ज़ेवर कपड़े भावत नहीं अलोना।
अन्त समय जम भालन मारैं मुख इन्द्री तब टोना।
होस हवास जांय उड़ि सारे निकसै नेक न रोना।५।
छिन सुख लागि कल्प सत भोगेव आँसुन ते मुख धोना।
पल भरि कल वहँ पर नहि मिलती डारैं नर्क के कोना।
या से चेतो कहा मानि लो पाप बीज मति बोना।
हरि सुमिरन में तन मन अर्पौ छूटै भर्म क ढोना।
कर्म शुभा शुभ जरैं अगिनि में मिलै नाम क गोना।१०।
ध्यान प्रकाश समाधी होवै धुनि औ रूप सलोना।
होनहार बलवान टरै जब निज को लखौ किलोना।
सतगुरु करो जियति सब जानो पांच कि आंच नचोना।
सूरति शब्द क भेद जान लो कर से माल गहोना।
मूला कहैं अन्त हरि पुर हो गर्भ में फेरि पड़ोना।१५।