८१९ ॥ श्री जियावन दास जी ॥
पद:-
जियावन दास कह भाई लेव सतगुरु से चलि दिच्छा।
श्रवण औ नैन खुलि जावैं मिलै परमार्थ की भिच्छा।
दमन इन्द्रिन क खुब करिकै करौ नित वीर्य्य की रच्छा।
ध्यान धुनि नूर लै पावो पास हो सातहू कच्छा।
राम सीता कि छबि सन्मुख रहै हरदम न कोइ इच्छा।
जियति में तै बिना कीन्हे देव मति और को सिच्छा।६।
दोहा:-
नाम रूप जान्यो नहीं शिष्य करने में सूर।
झूँठै धन हित गुरू बने हैं वे पूरे कूर।१।
अन्त समै जमराज लै झोंकैं मुख धूरि।
कहैं जियावन दास फिर देंय नर्क में पूरि।२।