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८१० ॥ श्री राम रघुबीर जी ॥


दोहा:-

हरि सुमिरन कछु नहिं बन्यो, कहैं राम रघुबीर।

हरिपुर मो को दीन दै कृपा सिन्धु रघुबीर।

अन्त समय हरि दरश दै कीन्हयों मोहिं निहाल।

चढ़ि बिमान हरि पुर गयों छूटा जग जंजाल।

हरि सुमिरन बिन तन बृथा जे जन देहिं गँवाय।

तिन सम अधम निकाम को मानो मम बचनाय।६।