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७०९ ॥ श्री सुरती शाह जी ॥


पद:-

सुरति को शब्द पर धरि कै वतन अपने को जाना है।

यही मारग फ़कीरी का इसी मारग से आना है।

जानि जप भेद सतगुरू से नाम क ताना ताना है।

ध्यान परकाश लय होती जियति बिधि गति मिटाना है।

देव मुनि आय दें दर्शन कहैं हरि यश क गाना है।५।

सुनौ अनहद मधुर बाजा अमी पी मुसकिराना है।

हर समय राधिका मोहन छमा छम पग फिराना है।

अन्त तन त्यागि निज पुर में हमेशा सुख उड़ाना है।८।