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५८५ ॥ श्री ठाकुर गमखोर सिंह जी ॥


पद:-

प्राण में जीव जीव में आतम आतम में परमातम भाई।

सतगुरु करि सुमिरन विधि जानै ता के सब करतल ह्वै जाई।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सन्मुख राम सिया छबि छाई।

अमृत चखै सुनै घट अनहद सुर मुनि मिलैं बिहंसि उर लाई।

नागिन जगै चक्र षट बेधैं सातौं कमल खिलैं हर्षाई।५।

दहिन बाम स्वर एक में होवै तब सुखमन नाड़ी में आई।

सुखमन से चित्रिणी में जावै चित्रिणी ते बज्रणी में धाई।

बज्रणी ते चलि ब्रह्म नाड़ि में धूम रूप बनि जाय लुभाई।

रं रं रं रं शब्द होत तहं सुर मुनि चलि तहं जात समाई।

सूरति शब्द की जाप है अजपा जो कोई तन मन प्रेम लगाई।१०।

सो पच्छिम दिशि खोलि किंवारी जियतै निज ग्रह को लखि पाई।

सुख आसन ते बैठक कीजै सिद्धि होय तब देव हटाई।

प्रथम एकान्त जगह जहं होवै तहं पर जाय त्यागि भय काई।

आंखै दुनों लेय बन्द करि ध्यान करै सतगुरु सुखदाई।

शान्ति दीनता की गोदी में निर्विकल्प बैठे चुपकाई।

जैसी प्रभू की इच्छा होवै वैसे लीला परै दिखाई।१६।