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५७९ ॥ श्री ठाकुर सुख सिंह जी ॥


पद:-

भगवान ने चेतन्ह कीन्ह तुम्हें अब तुम निज को क्यों जड़ करते।

प्रेम भक्ती बिना गति होगी नहीं हठ योग में विरथा क्यों परते।

या से जग मान बड़ाई मिलै औ आयु बढ़ै नीचे गिरते।

सिद्धी बहु घेरि के लेंय जकड़ि हा जियतै में उनसे हरते।

संकल्प समाधि है यह भाई जब उतरे बहु दुख में बरते।५।

मन स्थिर हर दम नहिं रहता सत संग परै तहं पर टरते।६।

सतगुरु करि सूरति शब्द पै दें ते मानो भव से हैं तरते।

धुनि ध्यान प्रकाश समाधि लहैं सन्मुख सिया राम छटा करते।

अमृत चाखैं घट साज सुनैं सुर मुनि दर्शैं नित पग धरते।

तन त्यागि चलै निज धाम डटै फिर चौरासी में नहिं परते।१०।


चौपाई:-

संसकार अच्छे नहिं जाके। सो बूरा तजि बालू फांके।

संसकार नीके हैं जाके। सो बारू की ओर न ताके।

निन्दा की कोई नहिं बाता। जीव फँसे देखा नहिं जाता।

या से कहेन सत्य हम भाई। सुर मुनि बेद शास्त्र जो गाई।

या में दुख मानै जो कोई। ताकी बुद्धि ठीक नहि होई।

प्रेम बिना भव होहु न पारा। पढ़ि सुनि गुनि लीजै नर दारा।६।