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४६७ ॥ श्री झुलनी माई जी ॥


पद:-

भाव से आशिष मिलत है मिलत कुभाव से श्राप।१।

आशिष से सुख होत है श्राप से दारुन दाप।२।

आतम से आतम मिलै छूटै भव की ताप।३।

शिष्य गुरु की एकता सुर मुनि दीन्हो थाप।४।