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३६९ ॥ श्री व्रह्मण्य जी ॥


पद:-

सतगुरु बचन जे गहि लिये ते नारि नर जग धन्य हैं।

धुनि ध्यान नूर समाधि में चलि जान एकदम सन्य हैं।

अमृत पियै अनहद सुनै लखि कै सकत नहिं गन्य हैं।

देव मुनि के दरश हों हरि यश सुनैं जी भन्य है।

नागिन जगै चक्कर चलैं सब कमल खिलि कै तन्य हैं।५।

निर्वैर निर्भय डोलते कोई नेम टेम न ठन्य है।

माया असुर यम काल मृत्यु तब उन्हैं किमि हन्य हैं।

धर्म राज औ चित्रगुप्त न लेख उनका जन्य है।

ब्रह्म सुख अन भवहिं तन मन ते रहत परसन्य हैं।

सब में अपने इष्ट ही को निरखते नहिं अन्य हैं।१०।

तन त्यागि निज पुर बास ले फिर गर्भ में नहिं घन्य है।

समय स्वांसा तन मिला अनमोल कहत ब्रह्मण्य हैं।१२।