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३१६ ॥ श्री खनी जान जी ॥


पद:-

पीली ने छीन ली है उजारों की रोशनी।

करती न शुक्र रव का दोज़ख़ में जम हनी।

पाकर वशर के तन को हा पाप में सनी।

बेकार श्वास जाती अनमोल यह मनी।

मुरशिद से सीख सुमिरौ बनि जाव टन मनी।५।

धुनि ध्यान नूर लय हो सनमुख में हो धनी।

सुर मुनि के होंय दरशन गिनि क्या सकौ अनी।

तन छोड़ि कै अचलपुर बैठौ कहै खनी।८।