१७३ ॥ श्री पण्डित गार्गीदत्त जी त्रिपाठी ॥
पद:-
काबू करिये चपल मन घोड़ा।
सतगुरु करो पकरि तब पावो बे लगाम क्यों छोड़ा।
सुरति कि डोर लगाम ज्ञान की शब्द क पकड़ौ कोड़ा।
हो असवार भागि कहँ जावै बांधि लेव निज जोड़ा।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि लादौ निशि दिन तोड़ा।५।
माला माल बनो तब प्यारे रूप सामने ओड़ा।
यम औ काल मृत्यु लखि भागैं जिमि मारै कोइ रोड़ा।
विजय के साज बजावैं सुर मुनि कहैं फूट भ्रम फोड़ा।
शान्ति दीनता प्रेम होय जेहि सो जग से मुख मोड़ा।
रज तम भोजन त्यागन करि दे सात्विक पावै थोड़ा।१०।
सोई सूर समर में जीतै तन मन को जिन गोड़ा।
तीरथ वर्त दिव्य तन धरि धरि पग परसैं ज्यों मोड़ा।१२।