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१४७ ॥ श्री टन मन शाह जी ॥


पद:-

बूढ़ी ह्वै गईं ठसक नहिं छूटी।

करैं सिंगार रुखाई तन पर मन की नेकौं चसक नहिं छूटी।

घर बैठे नहि होय रहाइसि घर घर घूमैं सनक नहि छूटी।

पर पति लखि मुसक्याय डगर में तन की उनके मटक नहिं छूटी।

निज पति को चाकर सम समझैं हिये कपार कि चारौं फूटी।५।

युवा अवस्था में पाप कि गठरी शिर पर बाँधिन लूटी।

दुख को सुख तन मन से मानि के रहीं उसी में जूटी।

ऐसा रंग चढ़ा अधरम का परी न एक दिन टूटी।

हर दम नशा चलै मदमाती चाखे विषय कि बूटी।

नहीं सोहाय और कोइ कारज कहौं वचन ले घूँटी।१०।

अन्त समय यम मारत लै जाँय नैनन ठोकैं खूँटी।

नर्क में फेरि मरम्मत होवै सब तन डारै कूटी।

हरि सुमिरन बिन ठीक ठौर नहिं कैसे भव की तपनि यह छूटी।

सतगुरु करै भजन विधि जानै राम नाम ले लूटी।

ध्यान प्रकाश समाधी होवै सन्मुख प्रभु छवि जूटी।

टन मन शाह कहैं तब उनके भर्म क भांड़ा फूटी।१६।