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१४ ॥ श्री जैन नाथ जी ॥


दोहा:-

चरणोदक को प्रथम लै, तब लीजै परसाद।

तन मन प्रेम से पान करु, तब हो आशिर बाद।१।

पांच परिकरमा करौ, फेरि दण्डवत तीन।

पाप होय सब नासि तब, कहते परम प्रवीन।२।

लेहु आरती आर्ति ह्वै, हरि में होवै प्रीति।

प्रभु सतगुरुहिं मिलाइ दें, नाम कि पावौ रीति।३।

जैन नाथ कह भजन की, जियतै जानो मूल।

तन छूटै हरि पुर चलो, मेटो जग का तूल।४।