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२६५ ॥ श्री जानकी दास जी ॥

जारी........

मुनि ते तब प्रभु निज मुख से बचन उचारी।

सुनतै मुनि तन का क्रोध भागि गयो झारी।

दियो बिष्णु को धनु मुनि हरि के हाथ पै धारी।

दीजै प्रभु चाप चढ़ाय मिटै दुख भारी।

छुवतै तँह चढ़ि कै चाप कियो जयकारी।

मुनि हर्षे तन मन ते अस्तुति कियो प्यारी।११०।

फिरि करि प्रणाम उत्तर की ओर सिधारी।

हर्षे तब राजा जनक भूप नर नारी।

कहैं राम श्याम रणधीर बीर धनु धारी।

शंकर का चाप जहाज़ तूरि महि डारी।

बल सागर रघुबर भुजा जक्त हितकारी।

जिनका करैं सुर मुनि भजन सदा एकतारी।

क्या मुनि मख में चलि आय कोप कियो भारी।

लघु भ्राता लछिमन मान मर्दि सब डारी।

इन मुनि मख रक्षा कीन ताड़ुका मारी।

मारीच उड़ायो बेफर बाण चलारी।१२०।

फिरि अगिनि बाण से असुर सुबाहु को जारी।

लछिमन असुरन को कटक सबै संहारी।

पथ्तर ह्वै गौतम नारि पड़ी दुख भारी।

हरि के चरनन रज परत बैठि उठि प्यारी।

अस्तुति फिरि तन मन प्रेम लगाय उचारी।

फिरि चरनन में परि पति के लोक सिधारी।

अब हम सब की क्या भाग्य खुली सुखकारी।

श्री जनक लली को बरिहैं अवध बिहारी।

अइहैं अब प्रेम सनेह से फिरि ससुरारी।

दरशन हम सब को मिलै खुल्यौ दर भारी।१३०।

यह रामायण प्रभु सिया चरित सुखकारी।

पढ़िहैं सुनिहैं करि प्रेम ताप त्रय हारी।

है कामधेनु रामायण जक्त मंझारी।

थन चारों चारि पदारथ हैं सुखकारी।

है बच्छ बने बहु भक्त पियत पय धारी।

निशि बासर गावत हरि चरित्र सुख कारी।

दोउ श्रृङ्ग बने हैं ज्ञान बिराग सुखारी।

हैं नेत्र अर्थ समझावन अनरथ टारी।

पुच्छ परम पद देत करत भव पारी।

हरि यश मुख ते उच्चारन होत करारी।१४०।

श्रवण ते सुनि जग धर्म प्रचार प्रचारी।

उदर दिव्य भण्डार कामना पूरत सारी।

चारों पग खम्भा बज्र जक्त को धारी।

है मंत्र कि महिमा बड़ी बड़ी गुणकारी।

तीरथ तामें सब बसत पिअत सुख भारी।

गोमूत्र व गोबर दूध दही घृत डारी।

बनि जाती है क्या पंच गब्य सुखकारी।

गौवन की सेवा करने से सुख भारी।

इन ही के बल से जग में मंगल कारी।

इनके सब तन में देवन बास करारी।१५०।

सो तुमको देंय लिखाय लिखो सम्भारी।

राजत हैं सींगन इन्द्र शक्ति संग प्यारी।

कानन में सत्य औ कर्म धर्म व्रत धारी।

मुख में हैं शिव शिवा गजानन भारी।

जारी........