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२४९ ॥ श्री शंखा सुर जी ॥


चौपाई:-

हरि से भागि बचै नहि कोई। हरि जो चहैं होत है सोई॥

छल बल चतुराई नहि चलती। हरि सन्मुख सब धूरि में मिलती॥

सागर पैठि खोजि मोहिं मारयौ। मच्छ रूप अति भारी धारयौ॥

चढ़ि बिमान बैकुण्ठ सिधायों। सुन्दर धाम बास तँह पायों॥

जिन सब खेल कीन बिस्तारा। तिनको भजै तो हो निस्तारा॥

शंखा सुर यह बिनय सुनावैं। हरि से लड़ै तहूं सुख पावै।६।