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२४२ ॥ श्री गीता जी ॥


चौपाई:-

कुरुक्षेत्र रण भूमि है जँह पर। सूर्य्य ग्रहण मज्जन हो तँह पर॥

कौरव पाण्डव दल दोउ जोड़ा। रथ पैदर कुञ्जर बहु घोड़ा॥

पारथ लखि कै भयो दुखारी। श्याम के चरनन में शिर धारी॥

हम न लड़ैं इनसे भगवाना। ये मम सम्बन्धी जग जाना॥

हमरी कुगति होय बनवारी। इनको हते पाप बड़ भारी।५।

पारथ के नैनन जल छावा। श्याम निरखि हँसि हृदय लगावा॥

जान्यो मोह में पारथ आये। लड़िहैं नहिं बिना समुझाये॥

खींचि मोह तँह पर हरि लीन्हा। शान्ति चित्त पारथ को कीन्हा॥

रूप बिराट फेरि दिखलावा। पारथ को सब भर्म मिटावा॥

जग भव पार करने के हेतू। रच्यौ चरित यह कृपा निकेतू।१०।

समुझि पारथै तब अधिकारी। कर्म उपासन ज्ञान उचारी।

ध्वज पर बैठ पवन सुत जानो। जे हरि चरित के रसिया मानो।

तँह मोको हरि परगट कीन्हा। गीता नाम तुरत धरि दीना।१३।


सोरठा:-

उपासना औ ज्ञान कर्म काण्ड मम भरयौ तन।

शिर कर फेरि के कान्ह, तन मन कीन्ह्यों अति मगन॥


चौपाई:-

पारथ ते हरि तब फिर भाषा। पारथ हृदयाङ्गम करि राखा।१।

पवन तनय सुनि भये सुखारी। लीन्ह्यों सब चरित्र उरधारी।२।


दोहा:-

पांच घरी में पारथहिं, हरि सब दीन बताय।

या में संशय को करै, हरि सब विश्व के राय॥


चौपाई:-

पल भर में परलय कर देवैं। पल ही भर में फिर रचदेवैं।१।

अपने उरते सब प्रगटायो। आपै उर में फेरि समायो।२।


दोहा:-

विश्व चराचर बने हरि और न दूजा कोय।

सतगुरु भेद बतावहीं, द्वैत जाय तब खोय॥


चौपाई:-

निर्गुण सर्गुण लखि तब पावै। तन मन प्रेम से हरि पद ध्यावै।

हरि फिरि मोहिं दीन बरदाना। करिहौ तुम जग को कल्याना।

गीता गीता जे जन करिहैं। बिन प्रयास भव सागर तरिहैं।

सब युग आदर होय तुम्हारा। सुर मुनि पढ़ि सुनि करैं बिचारा।

सुर मुनि एक बार नित नेमा। पाठ करैं तुम्हरो करि प्रेमा।५।

ब्यास मुनी फिरि करैं प्रचारा। कलि में बहु जानैं नर दारा।

पढ़ि औ सुनि निर्मल ह्वै जावै। तब हम उनको दरश देखावैं।

पहले दरश देंय हम जिनको। तब तुम दरशन दीन्ह्यो उनको।८।


दोहा:-

चारि बेद षट शास्त्र का औ दश आठ पुरान।

सबै उपनिषद संहिता योग वशिष्ठ को ज्ञान।१।

सब का सत हम खींचि कै तुम्हरे तन भरि दीन।

या से तुम मम अति प्रिय, जानहिं परम प्रवीन।२।


चौपाई:-

सुमिरन कथा कीर्तन ध्याना। जहां होत तँह करौ पयाना।१।

भक्तन के हित नर तन धारौ। असुरन बधि फिर धर्म्म प्रचारौ।२।

हरि मोते फिरि कह्यो सुनाई। जप करना हर दम सुखदाई।३।


दोहा:-

कूटस्थो अक्षर उच्यते, का दियो भेद बताय।

धुनी उठत सर्वाङ्ग से, हरि सन्मुख दर्शाय।१।

जैसै उत्पति भई मम, कृष्ण कृपानिधि कीन।

तुम से भेद बताय हम, सत्य सत्य सब दीन।२।