साईट में खोजें

२४१ ॥ श्री रामायण जी ॥

(मानस जी)

 

दोहा:-

राम नाम जप यज्ञ सम और यज्ञ नहि कोय।

जा के बल से ध्यान लय हरि दर्शन सुख होय॥

कथा कीरतन सुर मुनी कहैं करै लखि लेव।

सब लोकन में घूमि कै जियतै जानौ भेव॥

रामायण मानस कहैं सुर मुनि मेरो नाम।

शिव ने हरि के चरित लखि, लीन हृदय में थाम॥

अधिकारी पायो नहीं ताते प्रगट न कीन।

पारवती को प्रेम अति जान्यो तब कहि दीन॥

अपनी इच्छा ते प्रगट करि मोहि पास बिठाय।

जो चरित्र शिव ने लख्यो सो मोहि दीन लखाय।५।

 

चौपाई:-

प्रथम मन्त्र मोहिं तारक दीन्हा। तब उर हरि चरित्र भरि दीन्हा॥

बर दीन्ह्यो मो को अति सुन्दर। सुर मुनि गै हैं तुम्हैं निरन्तर॥

अष्ट सिद्धि नव निद्धि के दायनि। दीन बनाय तुम्है मन भायनि॥

तन मन प्रेम लगाय के तुमको। कहिहैं सुनिहैं ते प्रिय हमको॥

उर तुम्हरे सब तीर्थ निवासा। राम सिया सुर मुनि ऋषि वासा।५।

 

पूजन तुम्हरी जो नित करिहैं। ते प्राणी भव सागर तरिहैं॥

धूप आरती तुलसी फूला। चन्दन भोग समय अनुकूला॥

तब उनको दर्शन तुम दीजै। अब तुम जाय जक्त यश कीजै॥

बालक बृद्ध तरुण नर नारी। बहु ह्वै हैं तुमरे अधिकारी॥

काक भुशिण्डि औ जाग्यबल्क मुनि। चारौं युग प्रचारिहैं पुनि पुनि।१०।

 

दोहा:-

प्रेम भाव करि नित तुम्हैं करै दण्डवत जौन।

वा को हम भूलैं नहीं जावै हरि के भौन॥

 

सोरठा:-

सत्य दीन बतलाय जैसे मम उत्पति भई।

मानो मम बचनाय सृष्टि जक्त सब हरि मई॥